मेरे मित्र

Thursday, May 9, 2013

मौन मुखरित हो गया

हाँ आज फिर ह्रदय ने उसे फिर बेपरवाह हो याद किया है |
वो चौदह साल की उम्र , नयी भावनाओं का अवतरण ,और ऐसे में अचानक उसका सामने आ जाना |
नीली जीन्स और सफ़ेद शर्ट में , और प्रथम दृष्टया मैं नाविका के कमरे में उसे देख अवाक थी  पर वो इन सब से अनिभिज्ञकिसी बात पर अपनी नविका को डांटने में लगा था |
संजीवनी चुप थी पर उसकी वो डांट नाविका के लिए भले ही विश्बुझी छुरी सी हो पर न जाने क्यूँ वो संजीवनी कानो में अमृत घोल रही थी |
और वो अपना काम समाप्त कर बिना उसका  परिचय जाने उसे अनदेखा कर यूँ चला गया जैसे उसका कोई अस्तित्व ही ना हो |
खैर संजीवनी से भी भी रहा न गया और मैं नाविका से कह ही पड़ी ," कौन था ये अकडू यार ?"
"भैया ",नविका ने उत्तर दिया |
ओहो तो ये हैं मैडम के भैया जिनके चर्चे सुनाये जाते थे , ऐसा तो कुछ नहीं है इनमे ,उस ऐड एजेंसी वाले क्या देख कर इन्हें ऑफर किया था |
पर उसका ह्रदय तो इसका उल्टा ही सोच रहा था |
नाविका और संजीवनी साथ ही पढ़ा करते थे तो अक्सर ही संजीवनी नाविका के घर पर होती |
कभी गैलरी में कभी लॉन में आमना सामना हो ही जाता |
आज घर पर बस बच्चे ही थे और अचानक वैभव भी आ गए शायद लंच के लिए , हम सब चावल खाने जा रहे थे ,पर वैभव चावल कम खाया करते थे ,संजीवनी ने कुछ दनो में यह भी पता लगा लिया था | पर रोटी सकेगा कौन नविका तो नहाने गयी है और हमेशा की तरह जल्दी में रहने वाले वैभव बोल पड़े :
संजीवनी ..............ज़रा रोटी सेक दो मुझे खा कर जल्दी जाना है |
संजीवनी स्तब्ध थी वैभव के मुख से अपना नाम सुन कर और प्रसन्न भी |
उसने खाना परोसा और वैभव को दे दिया बिना कुछ बोले ,पर उसकी आँखें सब बोल रही थी |
शायद जीवन में उसे पहली बार खाना परोसना रास आया था |
और वैभव खाना खा कर चले गए |
नविका नहा कर आयी तो उसने पूछा भैया आया था क्या ? 
संजीवनी- हाँ आज एक एहसान कर दिया है तुम्हारे भाई पर उसे रोटी बना कर खिला दी है | कहना उतार सके तो उतार देगा ये एहसान |
नविका थी तो संजीवाई की दोस्त ही शायद पढ़ चुकी थी उसकी आँखें , इसलिए बस मुस्कुरा कर रह गयी |
संजीवनी नाविका से अक्सर पुरानी बातें बताने को कहती , जानना चाहती थी की वैभव बचपन में कैसे थे |
और नविका उसे बताती रहती और कभी कभी सताने के लिए पूरा पूरा दिन बात करती पर उसमे वैभव का ज़िक्र आने नहीं देती और अंत में संजीवनी के चेहरे की उदासी देख सब समझ जाती |
धीरे धीरे ये भावनाएं फलीभूत होने लगी और एक दिन संजीवनी को पता लगा की वैभव दिल्ली जा रहे हैं|
अकेले कमरे में फूट फूट कर रोई थी संजीवनी और उसके कलम ने उसके मन की सारी व्यथा कविता बना कर एक पन्ने पर लिख दी | कविता का शीर्षक था "दिल्ली"|
और अगले दिन वो पन्ना संजीवनी वैभव के कमरे में रख आई| वैभव को एक हफ्ते में जाना था |
इसी बीच एक दिन इस चाहत ने की उसकी कविता का क्या हुआ संजीवनी बिना डरे वैभव के कमरे में चली गयी , वो घर में वैभव के न होने का समय था |
पर किस्मत वैभव बिस्तर पर पेट के बल पड़े सो रहे थे और संजीवनी ये मौका गंवाना नहीं चाहती थी , उसे लगा न जाने इतने करीब से वो दोबारा कभी वैभव को देख भी सकेगी या नहीं ये सोचते हुए वो न जाने कब वहीँ पड़ी कुर्सी पर बैठ गयी और वैभव को देखते देखते न जाने कब सो गयी |
वो सोती रह गयी और वैभव जाने कब उठ कर कमरे से बहार भी चले गए |
बहुत शर्मिंदा थी वो अपनी इस हरकत पर , खुद को माफ़ नहीं कर पा रही थी क्या जवाब देगी सबको और वैभव को भी ,गर उन्होंने कुछ पूछ लिया |
दो दिन बार संजीवनी का जन्म दिन था , नविका और वैभव की लडाई चल रही थी और संजीवनी का मन था की वैभव भी उस दिन उसकी पार्टी में ज़रूर आयें | उसने नविका से कहा अपने भैया को बुलाने को , तो नविका ने कहा भैया कहीं अकेले नहीं जाता अपने दोस्तों के साथ जाता है तो तुम्हे उन्हें भी बुलाना पड़ेगा |
और संजीवनी ने सहर्ष सबको निमंत्रण दे दिया |
और आज उसे बस एक ही बात की प्रतीछा थी "वैभव के आने की "
शाम को हर घंटी पर उसे लगता की शायद वैभव आ गए |
वैभव आये ,उसके हाँथ में गिफ्ट दिया , पर जिन दो शब्दों से आज वो जन्मने वाली थी बस वही नहीं कहा वैभव ने "HAPPY BIRTHDAY"|
और पूरी पार्टी में वो बस अकेली ही थी वैभव के साथ ,और पार्टी कब ख़त्म हो गयी पता ही नहीं चला उसे |
सब जाने लगे , और जैसे ही वैभव उठ कर खड़े हुए मनो उसकी तो दुनिया ही ख़त्म हो गयी |
खैर मौन से भरा ये एक तरफा रिश्ता उसे ऐसे ही प्रिय था , वो वैभव की आँखों से ही उसके भाव पढ़ लेना चाहती थी ,पर जब पढने चलती तो उसे बस एक नीरवता ही मिलती जिसका आदि और अंत उसे दोनों ही नहीं पता था |

खैर वैभव दिल्ली चले गए और जीवन आगे बढ़ गया | संजीवनी और नविका भी अलग अलग हो गए और वैभव की यादों के साथ  समय बीतता गया |
संजीवनी ने पढ़ाई ख़त्म की और उसकी शादी हो गयी और उसे पुराने दोस्तों से पता लगा की नविका की भी शादी हो गयी |
आज बरसों बाद वो नविका से मिलने उसके घर जा रही थी | वही घर , वही लॉबी , वही कमरे और वैसी ही नविका लगा ही नहीं की बरसों बाद मिल रही है उससे |
सबकी बातें होती रही बस वैभव का ज़िक्र करने में हिचकिचाहट सी थी ,कैसे पूछे , क्या पूछे, क्यूँ पूछे और किस हक़ से पूछे |शायद नविका समझ गयी थी उसके मौन प्रश्न को ,"भैया की शादी हो गयी , एक बेटा है उनका |"
और फिर बहुत देर तक कमरे में सन्नाटा छाया रहा |
नविका उसी दिन शाम को अपने ससुराल चली गयी और संजीवनी वापस अपने घर , फिर ये सिलसिला जारी रहा|
एक बार वैभव को देखने की इच्छा शेष थी , जाने कैसे दीखते होंगे |
और अगली मुलाकात में ही ईश्वर ने संजीवनी की ये इच्छा पूर्ण कर दी , वैभव लॉबी में बैठे थे और उनकी पत्नी रसोई में खाना परस रही थी , और संजीवनी ने बस लॉबी में प्रवेश ही किया था | एक हेल्लो के बाद वैभव वहां से उठ कर चले गए और वो और नविका फिर अपनी पुरानी यादों में| 
पर बार बार कचोट रहा था संजीवनी का ह्रदय ऐसा भी क्या दो मं लॉबी में ही नहीं बैठ सकते थे ,घुस गए अपने कमरे में अपनी पत्नी के साथ |
यही सब सोचते संजीवनी घर लौट आयी |
कल उसे नविका से मार्किट में मिलना था और वो इस बात से अनिभिज्ञ की उस शॉप में नाविका के साथ वैभव भी होंगे वो अन्दर घुस कर चिल्ला पड़ी ,
क्या यार इतनी देर से ढूंढ रही हूँ तुझे और तू फ़ोन क्यूँ नहीं उठा रही है ?
तभी उससे एक फिट दूर उसके सामने वैभव , फिर स्तब्ध संजीवनी उसी बरसों पुराने मौन के साथ |
परन्तु आज मन में दृढ निश्चय कर लिया था संजीवनी ने की एक बार ये तो पता लगा कर रहेगी की वो वैभव के जीवन में कोई स्थान रखती थी या नहीं|
और लौटते लौटते वही पुराना पिक्चरों वाला तरीका , जाते जाते उसने सोचा पलट कर देखूँगी गर वैभव भी मुझे देख रहे होंगे तो मैं खुद के लिए भी संजीवनी हो जाऊंगी |
और वो चलते चलते पलट गयी , वैभव उसी को देख रहे थे |
आज वो जी उठी क्योंकि जिस नज़र का उसने सदा से इंतज़ार किया था 
वो उसे आज मिली है |
बिन कुछ बोले आज वैभव की आँखों ने उससे बहुत कुछ कह दिया और उसने सुन भी लिया और अंततः आज मौन मुखरित हो गया |   

Thursday, May 2, 2013

शिवत्व

ह्रदय बहुत बेचैन था उसका फिर पहले की भांति ....
ना जाने कैसा ह्रदय दे दिया था ईश्वर ने उसे किसी के भी दर्द का एहसास उसके दर्द का एहसास हो जाता था ,
आज फिर किसी के दर्द को महसूस कर रही थी वो ,
उसके बचपन  की दोस्त ज्योत्सना , प्रेम विवाह किया था उसने ,
अनुष्का को आज भी याद है वो दिन जब वो ज्योत्सना को दुल्हन के जोड़े में देख कर देखती रह गयी थी।
विदाई के पल उसे कुछ समझ ही नहीं आया की वो अपनी मित्र को क्या दे ,
कुछ खास तो दे न सकी अपनी लिखी कुछ दुआएं उसके नाम कर दी "एक कविता ज्योत्सना के नाम " ।
और ज्योत्सना अपने घर चली गयी । समय पर लगा कर उड़ता चला गया अनुष्का भी ब्याह करके अपने घर की हो गयी , परन्तु पुरानी यादों को कभी न भुला सकी अनुष्का , जीती रही अपना भूत वो अपने वर्तमान के साथ और भविष्य के लिए देखे हर सपने में उसे अपने हर अपने को साथ पाने का स्वप्न भी साथ संजोये रखा । हमेशा पुराने लोगों के साथ ही चलती रही नए लोग जीवन में आये तो पर वो स्थान बना नहीं सके ।
विवाह के कुछ आठ वर्षों बाद अचानक उसे ज्योत्सना का नंबर मिला तो वो ख़ुशी से फूली न समाई और उसने तुरंत ही अपनी मित्र को फ़ोन मिला दिया और उधर से ज्योत्सना ;
हेल्लो
कौन ?
मैं अनुष्का पहचाना ।
कैसे नहीं पहचानती ज्योत्सना उसे ............
अनुष्का सपनो खुशियों और मुस्कराहट का दूसरा नाम जो थी , उसके साथ रहने वाले के दुःख न जाने कहाँ गायब हो जाते थे और ज्योत्सना चिल्ला पड़ी कहाँ मर गयी थी तू , तुझे कभी मेरी याद नहीं आयी ।
अनुष्का - "याद न आती  तो तेरा नंबर ढूंढ कर  मैं तुझे फ़ोन कर रही होती अब शिकायतें बंद कर और ये बता की हम कब मिल रहे हैं "?
और ज्योत्सना बिना रुके बोल पड़ी कल मिलते हैं|
कल पुरानी  यादों के साथ कितनी जल्दी आज बन गया और बस ज्योत्सना अनुष्का के पास पहुंचने ही वाली थी........
कुछ ३५ मिनट बाद ..........
ये सब क्या है ज्योत्सना ? ये क्या हाल बना रखा है ? हुआ क्या है आखिर ?
न जाने कितने ऐसे सवालों ने ज्योत्सना को घेर लिया , और शायद ज्योत्सना चाहती भी यही थी ............
ह्रदय में बरसों से भरी दर्द की गंगा उसने अनुष्का के सामने यूँ उड़ेल दी मानो शिव स्वयं उसके सन्मुख आ गए हो , और उसके जीवन का विष अपने कंठ में धारने को तत्पर हो |
और सुनकर अनु शब्द विहीन हो गयी ............
शायद यही दर्द था जो अनु महसूस कर रही थी |
भरी भीड़ में भी ये एहसास ज्यूँ वो दोनो अकेली हों और कोई एहसास नहीं , मन की सुन्नता और बस मन की सुन्नता |
अनु उसका दर्द सुनकर कुछ कह न सकी और उसे गले लगा कर विदा ले लौट आयी गर कुछ कर सकी थी तो शायद बस इतना की ज्योत्सना के अकेलेपन के एहसास को ख़त्म कर आयी थी वो ...........
अनु घर पर थी संभव को खाना दे रही थी परन्तु संभव से परे उसका ह्रदय तो बस ज्योत्सना में लगा था , कब सोचते और घर के कार्य निपटाते दोपहर से रात हो गयी |
रात्रि की नीरवता ने उसके मष्तिष्क को पुनः झंझोर दिया , " क्या ये वही ज्योत्सना थी अपने भाइयों की लाडली ज्योति " | पुनः उसकी शादी अनु के मष्तिष्क पटल पर छायांकित हो गयी | सिया सी लग रही थी लग रहा था अपने राम के वरन को जा रही हो जयमाल लिए , और स्टेज पर अनुराग भी ज्योत्सना के अनुराग में लिप्त से लग रहे थे , सब कह रहे थे क्या राम सिया सी जोड़ी है ,
क्या ज्योत्सना के जीवन का वनवास उपर्युक्त कथन का ही परिणाम था ?
क्या इसीकारण दो अगाध प्रेम करने वाले एक दूसरे से अलग थे ?
क्या इसीको नज़र लग्न कहते हैं की लोगों के एक कही ने ऐसा दंश दिया की आज अनुराग और ज्योत्सना के बीच कुछ भी सही नहीं |
बस जीवन है इसलिए जिए जा रहे हैं दोनों अपने द्वारा जन्म दिए दो बच्चों और अपने माता पिता के जीवन के लिए ..............
कितना कुछ हो गया अनुराग नशे के आदी हो गए , काम काज से विरक्त , न ज्योत्सना की परवाह और न अपने अंशों की , जो पिता से तो परिचित थे पर पिता के प्रेम से नहीं |उनका परिचय तो बस पिता की उद्विग्नता से हुआ था .......
रात कब यह सब सोचते कट गयी अनुष्का को समझ ही न आया , गर कुछ समझ आया तो बस इतना की उसे ज्योत्सना के जीवन में खुशियों के कुछ पल तो डाल ही देने हैं यही सोच कर उसने सुबह होते ही ज्योत्सना को फिर फ़ोन मिला दिया |
क्या कर रही है यार ? चल आज तू घर आ जा साथ खाना खायेंगे .......
और उधर एक मौन .........
क्या हुआ ज्योति कुछ बोल तो आ रही है न .........
ज्योत्सना ," देखती हूँ , समय मिलेगा तो ज़रूर आऊंगी |"
अनुष्का फ़ोन रख कर खाना बनाने में लग गयी , ऐसा लग रहा था मानो उसे एहसास हो की ज्योति ज़रूर आएगी ........
और कुछ दो घंटे बाद डोर बेल की आवाज़ के प्रत्युत्तर में अनु चिल्ला पड़ी आई ज्योति एक मिनट रुक |
दौड़ कर आयी अनु और दरवाज़े के बहार खड़ी अपनी दोस्त को खींच के अन्दर बुला लिया |
आजा तू बैठ मैं बस पानी ले कर आई .............
ज्योत्सना खुश थी अनु की ख़ुशी और उसकी वही चंचलता और चपलता देख कर |
अनु पानी लेकर आयी और फिर बोली चल पहले अपने पहले वाले कॉलेज चलते हैं , आज सबसे मिलेंगे ........
फिर लौट कर खाना खिलाती हूँ तुझे तेरा फेवरेट इडली डोसा बनाया है मैंने ......
और दोनों सहेलियां हाँथ पकड़ कर अपने पुराने स्कूल पहुँच गयी , वो क्रीडा स्थल , वो झूले , वो पेड़ , वो कोरिडोर सब कितना अपना था , और यहाँ होना शायद ज्योत्सना का एक सपना था |
समोसे वाले दादा के समोसे , गुप्ता जी की भेल पूरी,और काले वाले चूरन  ने फिर से ज्योत्सना के जीवन को पल भर को फिर से वैसा ही चटपटा कर दिया था और छीन कर खा गयी थी वो अनु के हिस्से का अमरक भी |
दोनों अपना बचपन जीकर वापस चले आये और फिर इडली भी तो ज्योति का इंतज़ार कर रही थी |
ज्योति ," अनु अब पेट में जगह तो है नहीं पर तूने चीज़ ही ऐसी बनाई है , जल्दी खिला और अब जाने दे |"
और खाना खाने के बाद ज्योति अपने घर लौट गयी |
एक रात अनुष्का ने ज्योत्सना के दुःख के साथ काटी थी और आज की रात ज्योत्सना इस ख़ुशी के साथ काटने वाली थी की की कम से कम अनु जीवन के इन कठोर पलों से दूर है .........
बहुत खुश थी ज्योति , अनु और उसके बेटे संकल्प से मिल कर ?
सोचने लगी कितना सुखी परिवार है पति पत्नी और एक प्यारा सा बेटा | 
निद्रा की गोद ने का उसे थपकी दे कर सुला दिया उसे पता ही न चला पर लाख परेशानियों के बाद भी आज की रात उसके जीवन की एक सुखी रात थी |
दिन बीतते गए दोनों दोस्तें बीच बीच में मिलती | अनुष्का के कारन ज्योत्सना ने घर से बहार निकलना और आत्मनिर्भर बनने के प्रयत्न शुरू कर दिए और धीरे धीरे उसने स्वयं को कार्य में व्यस्त कर लिया और कुछ वाह्य खुशियों में भी .............
बार बार ज्योत्सना , अनुष्का और उसकी खुशियों को सोच , खुश हो रही थी ..........
समय बीतता रहा , कब दो वर्ष बीत गए पता ही न चला ज्योत्सना को काम और जीने का सहारा मिल गया और धीरे धीरे उसने अनुष्का से पाए प्यार से सीख कर अनुराग को भी बदल डाला |
आज ज्योत्सना को अपने काम से मिस्टर सिंह के वहां जाना था ,
जैसे ही मिसेस सिंह ने दरवाज़ा खोला ज्योत्सना अवाक् रह गयी ये तो एकता थी उसके बचपन की सहेली , अनुष्का और ज्योत्सना की एक और हमजोली |
ओहो तो आप हैं मिसेज़ सिंह मैडम .......
कैसी कट रही है ? क्या चल रहा है ?
फिर वही पुराने दोस्तों वालें पुराने सवाल ..........
और फिर चकल्लस शुरू हो गयी .........
और ज्योत्सना बोल पड़ी ," यार अगर अनुष्का नहीं होती तो जाए मेरा क्या होता ? और पूरा पिछला दो वर्ष उसने एकता के सामने खोल कर रख दिया |"
ज्योत्सना बोले जा रही थी यार अनु ये अनु वो, क्या इडली बनती है , क्या मस्त जीवन है उसका 
एकता चुप चाप सुन रही थी 
..................................................दोनों मिया बीबी एक जैसे ही हैं तभी इतनी मस्ती चढ़ी है उसे|
और इस एक वाक्य ने एकता की चुप्पी तोड़ ही दी ,"पागल हो गयी है क्या तू ज्योत्सना , दो साल से तू अनु के साथ है और तुझे पता नहीं की वो जीवन के किस भद्दे रूप से गुज़री है | उसके पति की मृत्यु उसके विवाह के दो साल बाद ही हो गयी थी , आत्महत्या की थी उन्होंने , तब संकल्प गर्भ में था अनु के |"
ज्योत्सना के पैरों के नीचे से तो ज़मीन ही निकल गयी ........
क्यों !
क्यों की थी आत्महत्या ...?
उन्हें शक था की अनु के जीवन में कोई और है , पहले वो अनु को मारते पीटते रहे , और जब उन्हें कुछ और समझ नहीं आया तो बिना सच जाने उन्होंने............|
ओह गाड..........
मैं क्यूँ नहीं समझ सकी हर बार उसके मौन को .........
हर बार जब भी मैं जीजाजी से मिलाने की जिद करती जवाब में बस चुप्पी मिलती और साथ में जो मुस्कराहट मिलती वो तो बस मुझे दुखी न करने को होती |
मैं क्यूँ न समझ सकी उसके उन आंसुओं को जो मेरी तकलीफ में मुझसे पहले निकल आये थे |
मैं क्यूँ न समझ सकी उसके घर के सन्नाटे को जिसमे संकल्प की अवाज़ के अतिरिक्त और कुछ नहीं था |
ओह अनु ये क्या किया मैंने मैं तेरे सामने कहती रही और तू अपने दुखों को भूल मेरे दुखों को सुखों में बदलने में लगी रही |
शायद यही है दोस्ती , यही है भोलापन और यही है शिवत्व जो खुद गरल पान कर दूसरों को बस प्रसन्नता बांटता है |
शिव से अगाध प्रेम करने वाली अनुष्का आज मेरे लिए शिव सरीखी हो गयी |